हर दौर में खरे रहेंगे कुएं और तालाब

यूं ही एक मित्र की राय पर घूमते-घूमते गांधी शांति प्रतिष्ठान जाना हुआ था। मित्र ने कहा अनुपम जी से मिल लो तुम्हारी परेशानी दूर हो जाएगी। परिसर के एक तरफ मौजूद साधारण से कमरे में फाइलों, किताबों के ढेर के बीच वो बैठे थे। पहली ही वाणी ने मन के पोर-पोर को एक नई ऊर्जा दी थी। ब्लूलाइन बस के कंडक्टरों की लठ्ठमार हरियाणवी सुनते सुनाते उनके दरवाजे पर पहुंचा था। बातों ही बातों में उनका प्रभाव मन पर छाने लगा था। उनका वृहद व्यक्तित्व, विनम्र आचरण से खुद ब खुद स्थापित होने लगा। अब तक उनके बारे में मेरा व्यक्तिगत ज्ञान काफी कम था। बातचीत के बीच ही उन्होंने अपनी लिखी एक पुस्तक "आज भी खरे हैं तालाब" भेंट की। इतनी सरल भाषा में इतनी विश्लेषणात्मक, रिपोर्ताज आधारित पुस्तक के दो चार पन्ने पढ़ कर ऐसा लगा कि जिस उद्देश्य के लिए अनुपमजी के पास आया था वो उनसे मिलकर ही पूरा हो गया। ऐसा संपूर्ण गांधीवादी इस जमाने में, एक विरल अहसास था उनसे मिलना।

"आज भी खरे हैं तालाब" के बारे में एक बात बताना जरूरी है। पर्यावरण, तालाब, पानी के ऊपर इतनी गहराई से हिंदी में शायद ही कोई पुस्तक उपलब्ध होगी। देश समाज के बारे में उनके सूक्ष्म ज्ञान की गवाही देती है ये पुस्तक। इसे तहलका सहित कई प्रकाशन कालजयी रचनाओं में शामिल कर चुके हैं। इंडिया टुडे ने देश में लिखी गई अब तक की तीस सर्वश्रेष्ठ, सबसे ज्यादा छपी, बिकी और पढ़ी गई पुस्तकों में इसे शुमार किया है—इनमें गीता और रामायण भी शामिल हैं। इसके इतर आज कोई भी प्रकाशन, संस्था या व्यक्ति इस पुस्तक को छपवा सकता है, बेच सकता है और बंटवा सकता है। इसके बदले में उन्हें किसी रॉयल्टी की दरकार नहीं है। देश की लगभग सभी भाषाओं में और कई विदेशी भाषाओं में लोगों ने इसका अनुवाद किया है। आज बाज़ार के सारे कुएं पट गए हैं, कुछ पर बिल्डिंगें खड़ी हो गई हैं, कुछ पर रेहड़ी पटरी वालों ने कब्जा कर लिया है। तर्क ये दिया जाता हैं कि इसमें टाउन एरिया का ही फायदा है, तयबाजारी जो वसूल होती है।

इस मुलाक़ात के कुछ ही दिनों बाद ही अपने घर जाना हुआ। रास्ता काटने के लिए चलते चलते "आज भी खरे हैं तालाब" अपने साथ ले ली। किताब पढ़ी तो अहसास हुआ कि तालाबों को पाट कर, कुओं पर घर खड़ा कर किस विनाश को न्यौता दे रहे हैं हम। रोडवेज़(बस स्टैंड) पर उतरा तो दिमाग में घूम रहा था, पहले हम कैसे सब्जी मंडी वाले कूंए की मुंडेर पर बैठकर अपने ही अक्स को पत्थर मारते रहते थे और छपाक की गूंजती हुई आवाज़ पर उछलते थे। फिर याद आई अपने घर के पिछवाड़े वाले कुंए की जिसमें एक बार जवाहिर चाचा की जलती हुई टॉर्च गिर गई थी। पानी की रोशनी अंदर तली से ऊपर आ रही थी। पूरा मुहल्ला रस्सी में चुंबक बांध कर ऱोशनी के आस-पास इस उम्मीद से डुबोता-निकालता रहा कि शायद टॉर्च निकल आए। धीरे-धीरे टॉर्च की रोशनी मद्धिम पड़ती हुई बंद हो गई। इतना साफ पानी था उस कुंए का। कुंए की मुंडेर से सटा हुआ चबूतरा था। जिस पर मुहल्ले के दो चार लोग रोज़ नहाते और तुलसी के पेड़ को जल चढ़ाते थे। वैसे इस कुंए का सबसे बड़ा उपयोग तब देखने को मिलता था जब किसी के यहां किसी की मृत्यु के बाद दसवां यानी शुद्धिकरण होता था। कुंए के चारों ओर बाल मुंडवाए लोगों का जमघट लगता था। यहां से शुद्ध होकर लोग तेरहवीं की तैयारी करते थे।

आज जब मैं रोडवेज़ से उतर कर बाज़ार में घुसा तो पाया कि सब्जी मंडी वाला कुआं पट गया है। उसकी मुंडेर को भी तोड़ दिया गया है। वहां दो-चार सब्जी वाले अपनी रेहड़ी लगा कर बैठते हैं अब। आगे बढ़ा तो सूर्यबली के तिराहे के पास वाला कुआं याद आया इस पर उन्ही सूर्यबली के छोटे भाई ने अपनी दोमंज़िला बिल्डिंग खड़ी कर ली है। आगे चौराहा आ गया जहां खेलकर हम लोग जवान हुए हैं। इस कुएं को भी लोगों ने पाट दिया। तर्क ये था कि अगर पाटा नहीं गया तो ज़हरीली ग़ैस निकल सकती है। वैसे भी अब कौन कुएं का पानी पीता है। वहां से सामने ही अपना घर था पर निगाह मवेशी खाना जाने वाली सड़क की ओर चली गई। महाजनी टोला के दोनों कुओं में से एक पर बर्नवाल परिवार ने ये कह कर मिट्टी डलवा दी कि बच्चों के गिरने का ख़तरा है, दूसरे पर जायसवालजी ने चेयरमैन से सांठगांठ कर अपनी दुकान खड़ी कर ली। आज बाज़ार के सारे कुएं पट गए हैं, कुछ पर बिल्डिंगें खड़ी हो गई हैं, कुछ पर रेहड़ी पटरी वालों ने कब्जा कर लिया है। तर्क ये दिया जाता हैं कि इसमें टाउन एरिया का ही फायदा है, तयबाजारी जो वसूल होती है।

"आज भी खरे हैं तालाब" अपने पास थी। पर समझ नहीं आ रहा था कि इसे किसे देकर समझाया जाय। किसे पढ़ाया जाय। दो-तीन दिन ही बीते थे घर पर कि सुबह-सुबह बगल की सेठानी चाची रोते हुए अपने घर आयी। माताजी से जाने क्या बात की और उन्हें लेकर अपने घर चली गईं। थोड़ी देर बाद बाहर से तेज़ तेज़ आवाज़ें आने लगी। बाहर गया तो देखा मेरे पिताजी गुस्से में सेठानी चाची के पति यानी हमारे लालजी चाचा को समझा रहे थे। थोड़ी देर में समझ में आया कि चाचाजी अपने पुराने घर को तुड़वा कर उसका मलबा घर के पीछे वाले कुएं में फिंकवा रहे थे। सुबह से ही मजदूर इस काम में लगे हुए थे। इस बात से खुद उनकी पत्नी भी नाराज़ थीं। वो आज भी हर दिन तुलसी चौरे पर जल चढ़ाती हैं। पर वो उनकी सुनने को तैयार नहीं थे। इसीलिए वे रोते हुए हमारे घर आयी थीं। अब पापाजी और चाचाजी में तर्क-वितर्क हो रहा था। बहरहाल दोनों लोगों को शांत करके मैंने सबसे पहले उन मजदूरों को रोका जो लगातार मलबा कुएं में फेंक रहे थे। फिर एकदम से लगा कि "आज भी खरे हैं तालाब" आज सार्थक हो जाएगी। सबके बीच मैंने वो किताब चाचाजी को दी। कुछ पन्ने जल्दी-जल्दी में पढ़ कर उन्हें सुनाए और और दो चार उदाहरण दिए। याद दिलाया कि खुद उन्हीं के घर का हैंडपंप गर्मियों में पानी छोड़ देता है। दस पांच साल पहले तक ऐसी नौबत कभी नहीं आती थी। इसी समस्या से निपटने के लिए उन्होंने तीन साल पहले घर में बोरिंग करवायी थी। जहां पहले 50-60 फुट नीचे आसानी से पानी मिल जाता था, बोरिंग के समय उन्हें 100 फुट तक पाइप डलवानी पड़ी थी। आस पड़ोस के घरों के हैंड पंप भी बीते दिनों की बात बने ठूंठ से खड़े हैं। इसकी वजह यही थी कि कुएं पट जाने से भूमिगत जल के स्रोत रीचार्ज नहीं हो पा रहे थे। और दस साल के भीतर ही इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा था। ये बातें उनके दिमाग में बैठने लगी। तभी पापाजी ने धर्म की दुहाई दी किसी को पानी पिला नहीं सकते तो किसी का पानी छीनो भी मत। लोगों ने तो जाने क्या-क्या पुण्य करके कुएं बनवाए। इसे पाटकर पाप के भागीदार क्यों बन रहे हो?

बहरहाल "आज भी खरे हैं तालाब" की सार्थकता पर अंदर से अभिमान हुआ और बाहर से ये संतोष कि कुआं पटने से बच गया। कुछ इस तरह का अनुपम प्रभाव है अनुपमजी और उनकी लेखनी का। अब कुएं की साफ-सफाई और उसमें कूड़ा करकट ना पड़े इसके लिए जाली लगाने का प्रबंध मुहल्ले के लोग कर रहे हैं। शायद कर चुके होंगे।

अतुल चौरसिया